मंगलवार, 1 जनवरी 2013

Why student is not choosing engineering as a better career option?


इंजीनियरिंग की पढ़ाई से मोह भंग

सचिन यादव नई दिल्ली | Jan 01, 2013, 03:16AM IST
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निराशाजनक माहौल
:इंजीनियरिंग कॉलेजों में इस वर्ष बड़ी तादाद में सीटें रह गईं खाली
: पढ़ाई पर लाखों खर्च करने के बावजूद नौकरी नहीं मिलती

एआईसीटीई के आंकड़े
: बिजनेस मैनेजमेंट कोर्सेज में भी 66,988 सीटें खाली रह गईं
: इंजीनियरिंग कॉलेजों में 20 फीसदी शिक्षक पद अब भी रिक्त

देश भर में इंजीनियरिंग की पढ़ाई के प्रति छात्रों का रुख बदलता जा रहा है। पहले हर छात्र इंजीनियरिंग की पढ़ाई की तरफ रुख करता था, लेकिन अब प्रमुख राज्यों जहां पर इंजीनियरिंग कॉलेजों की संख्या बहुत अधिक थी वहां लाखों सीटें खाली रह गई हैं। यह इस बात का सूचक है कि अब इंजीनियरिंग की पढ़ाई से छात्रों का मोह भंग हो रहा है।

बड़ी संख्या में जिन राज्यों में इंजीनियरिंग कॉलेज खुले थे वहां पर कॉलेज मालिकों का एकमात्र काम मुनाफा कमाना रह गया था। इसके चलते ६-७ लाख रुपये खर्च करने वाले छात्र इंजीनियरिंग की पढ़ाई से पीछे हट रहे हैं। दरअसल इतना पैसा खर्च करने के बाद भी छात्रों को नौकरी तक नहीं मिल रही है जिससे उन्हें अपना रुख दूसरी तरफ करना पड़ रहा है।

पूर्व केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री डी.पुरनद्देश्वरी ने पिछले दिनों लोकसभा में अपने लिखित जवाब में बताया था कि वित्त वर्ष २०११-१२ के  दौरान देश भर में इंजीनियरिंग कॉलेजों में कुल १४,८५,८९४ सीटें थीं जिनमें से करीब २,८२,३२० यानी १९ फीसदी इंजीनियरिंग सीटें खाली रह गईं।

इस बाबत डी.पुरनद्देश्वरी ने एआईसीटीई को देश भर में टेक्निकल इंस्टीट्यूट की दशा सुधारने के लिए कार्यक्रम बनाने को कहा था। इसके साथ ही इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके पास होने वाले छात्रों के रोजगार की संभावनाएं बढ़ाने की खातिर संभावित कदम उठाने के लिए कहा था।

वहीं एआईसीटीई के आंकड़ों के मुताबिक बिजनेस मैनेजमेंट कोर्सेज में भी ६६,९८८ सीटें खाली रह गईं जबकि बिजनेस मैनेजमेंट कोर्सेज में कुल ३,५२,५७१ सीटें हैं। इसी तरह इंजीनियरिंग कॉलेजों में कुल २० फीसदी शिक्षक पद अब भी रिक्त पड़े हुए हैं।

देश भर में खाली सीटों की संख्या को देखते हुए नए इंजीनियरिंग कॉलेजों को फिलहाल मंजूरी देने से एआईसीटीई भी पीछे हट गया है। आंध्र प्रदेश, हरियाणा, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र में नए कॉलेज खोलने के प्रस्तावों को फिलहाल ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है। यह फैसला कुल खाली सीटों की संख्या को देखते हुए किया गया है।

देश भर में इस समय ३,३९३ इंजीनियरिंग कॉलेज हैं जिनमें १४.८६ लाख सीटें हैं। वहीं, ३९०० मैनेजमेंट स्कूलों में ३.५ लाख सीटें हैं। खाली सीटें रहने के चलते नए कॉलेज खोलने के प्रस्तावों में भी खासी कमी आई है। एआईसीटीई के मुताबिक दो वर्ष पहले २,१७६ नए प्रोफेशनल डिग्री कॉलेज खोलने के प्रस्ताव आए थे लेकिन वर्ष २०१२-१३ के लिए ३६२ लोगों ने ही नए कॉलेज खोलने के लिए आवेदन भेजे।

उत्तर प्रदेश में इंजीनियरिंग की शिक्षा चरमरा गई है। राज्य में सभी इंजीनियरिंग कॉलेजों में १.४० लाख सीटें हैं लेकिन इस वर्ष सिर्फ 38,000 सीटें ही भर पाई हैं। आंध्र प्रदेश में स्थिति इससे भी बुरी रही और वहां पर १ लाख से अधिक सीटें खाली रह गईं। यहां पर सरकारी इंजीनियरिंग संस्थानों के साथ-साथ प्राइवेट संस्थानों को भी अपना अस्तित्व बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है।

एआईसीटीई के पूर्व चेयरमैन और आईआईटी मद्रास के पूर्व निदेशक डॉ.आर.नटराजन ने बताया कि देश भर में इंजीनियरिंग कॉलेजों में उम्दा शिक्षकों की कमी है। आज भी नियमित शिक्षकों के स्थान पर इंजीनियरिंग संस्थान अतिथि शिक्षकों का सहारा ले रहे हैं। इंजीनियरिंग कॉलेजों की दशा देख कर छात्रों और उनके अभिभावकों का विश्वास कम हुआ है। दरअसल आज अभिभावक व बच्चे शिक्षा पर निवेश कर रहे हैं तो उसी के हिसाब से रिटर्न भी चाहते हैं। ऐसे में छात्र साइंस और कॉमर्स कॉलेजों की तरफ रुख कर रहे हैं।

अच्छी शिक्षा के लिए बेहतरीन और योग्य शिक्षकों का होना जरूरी है। जबकि सरकारी कॉलेजों के पास शिक्षकों को सैलरी देने का फंड तक नहीं है। इंजीनियरिंग कॉलेजों को इंडस्ट्री के साथ जोडऩे पर पढ़ाई के साथ-साथ छात्रों की ट्रेनिंग भी तेजी से होती जाएगी। इससे पढ़ाई के बाद ट्रेनिंग में लगने वाला समय बच सकेगा।  इंडस्ट्री के हिसाब से छात्रों को तैयार भी किया जा सकेगा। पीपीपी मॉडल के जरिए भी इंजीनियरिंग की शिक्षा को सुधारा जा सकता है।  

यूजीसी चेयरमैन वेद प्रकाश ने बताया कि निजी विश्वविद्यालय अभी भी वर्ष 2003 के रेग्युलेशन एक्ट  के अनुसार ही चलते हैं। वर्ष 2010 में एक नया रेग्युलेशन बनाया गया था जिसमें सुधार के बाद वर्ष 2012 में नए रेग्युलेशन में कुछ सुधार किए गए और मंजूरी के लिए मानव संसाधन विकास मंत्रालय को भेजा गया, जिसे अभी तक मंजूरी नहीं मिल पाई है।

बहरहाल अब भी जितनी प्राइवेट यूनिवर्सिटी बनती हैं, उसके लिए राज्य सरकार की मंजूरी अहम होती है। हालांकि, इन्फ्रास्ट्रक्चर और मेंटीनेंस की जांच का जिम्मा यूजीसी के पास है। बिना उसकी जांच के किसी भी विश्वविद्यालय को यूजीसी का अप्रवूल नहीं मिलता है।

निजी यूनिवर्सिटी को मान्यता देने की समय सीमा 235 दिन निर्धारित की गई है। इसमें सबसे पहले निजी विश्वविद्यालय की तरफ से मंजूरी के लिए आवेदन आता है। उसके बाद यूजीसी की तरफ  से विश्वविद्यालय को एक प्रोफ ार्मा भेजा जाता है, जिसे भरकर वापस भेजने का समय तीन महीने होता है। प्रोफ ार्मा वापस आने के बाद इसे एक महीने के लिए कमीशन की वेबसाइट पर डाल दिया जाता है। इस प्रोफ ार्मा को विश्वविद्यालय की साइट पर भी डालना अनिवार्य होता है।

इसके बाद कमीशन के द्वारा एक विशेषज्ञ समिति का गठन किया जाता है जो विश्वविद्यालय की जांच-पड़ताल करती है। कमेटी के पास अपनी रिपोर्ट जमा करने के लिए तीन महीने का समय होता है। कमेटी की तरफ  से जारी की गई रिपोर्ट पर विश्वविद्यालय अपनी प्रतिक्रिया देता है। कमीशन के पूरी तरह से संतुष्ट होने के बाद ही विश्वविद्यालय को मान्यता दी जाती है। इस दौरान, यूजीसी की वेबसाइट पर यह जानकारी होती है कि अमुक विश्वविद्यालय की मान्यता अंडर इंस्पेक्शन है।

जांच में लैब से लेकर लाइब्रेरी और फैकल्टी सबकी जांच की जाती है। मानकों को कड़ा करने के बाद से राजस्थान, गुजरात और हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों में निजी विश्वविद्यालयों की बाढ़ आ गई है। कई विश्वविद्यालय यूजीसी की मान्यता के बिना ही चल रहे हैं। अकेले राजस्थान में ही करीब 37 निजी विश्वविद्यालय हैं। कई इंजीनियरिंग कॉलेजों में भी बीटेक के बाद सीधे बच्चे एसोसिएट प्रोफेसर बन जा रहे हैं। हालांकि, यह एआईसीटीई द्वारा फैकल्टी की समस्या से उबरने के लिए किया गया, लेकिन इसका असर शिक्षा के स्तर पर पड़ रहा है।
http://business.bhaskar.com/article/engineering-studies-disillusionment-with-4132685-NOR.html