रविवार, 26 फ़रवरी 2012

इंतज़ार

चाँद के निकलने से ज्यादा उसे, उसके घर आने का इंतज़ार था. चाँद तो वो पिछले सात सालों से देख रही थी लेकिन उसका मुखड़ा देखे उससे सात सालों से अधिक का समय बीत गया था. झजे पर खड़ी कभी गली के मोड़ को निहारती तो कभी आसमान में एक छोर पर लगी उसकी आँखें किसी की यादों में खो जाती. वो यादों में खोयी ही थी कि अचानक आवाज़ आई चाँद निकल आया - चाँद निकल आया. वो यादों के झरोकों से बाहर निकलकर छत की तरफ भागी. उसकी प्याल का छनछनाहट और चूड़ियों की खनक भी उसके साथ दौड़ने लगी वो आधी सीढ़ी ही चढ़ पायी थी कि दरवाजे पर किसी ने घंटी बजा दी. अब चाँद को देखने की बेचनी एक तरफ और दरवाजे पर कौन है इसकी बैचैनी दूसरी तरफ उसकी धड़कन को बढ़ा रहे थे. आसमान में निकले चाँद को छोड़ कर वह दरवाजे की तरफ दौड़ पड़ी, दरवाजे पर कोई न था. खुद पर गुस्सा होते हुए अब वो फिर से छत की तरफ दौड़ी इस बार बादलों ने चाँद को अपने आगोश में ले लिया था.