वर्ष 2009 से वर्ष 2013 के बीच सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि पूरे वैश्विक परिवेश में सोशल मीडिया की धूम रही। कोई सोशल मीडिया को इसलिए क्रेडिट दे रहा है, क्योंकि उसकी वजह से युवाओं ने पूरे विश्व में अलग-अलग जगह पर अपनी आवाज उठाई तो कोई इसलिए सोशल मीडिया की प्रशंसा कर रहा है कि सोशल मीडिया ने लोगों को एक नई आवाज दी है जिसका शोर दूर तल्क सुनाई देता है।
वास्तविक रूप से आज भी लोग सोशल मीडिया की असलियत को शायद नहीं जानते हैं। आखिर सोशल मीडिया काम कब करता है और उसका प्रभाव लोगों तक कब पहुंचता है? कुछ उदाहरण देता हूं। 16 दिसंबर, 2012 को दिल्ली में एक रेप कांड होता है। पूरे देश के मीडिया को एक नया मुद्दा मिलता है। लोग इसे सोशल मीडिया का प्रभाव मानने लगते हैं लेकिन अगर सोशल मीडिया से देश के अन्य मीडिया को काट दिया जाए। तब भी इसका प्रभाव इतना ही रहेगा, कहा नहीं जा सकता है।
सोशल मीडिया के प्रंशसकों का कहना था कि जंतर-मंतर से लेकर इंडिया गेट-राजपथ सब जगह प्रदर्शन करने वाले युवा सोशल मीडिया के जरिए एक दूसरे के संपर्क में आए थे। पर एक बात यह बिल्कुल भी बताई नहीं गई कि घरों में चलने वाले टेलीविजन समाचारों और उस दौरान देश के समाचार पत्रों के लिए कौन सा एजेंडा ज़रूरी था। उस दौरान सिर्फ एक ही एजेंडा काम कर रहा था निर्भया की मौत, निर्भया का बल्ताकार और उसके लिए संघर्ष करते युवा... सोशल मीडिया के कारण कितने लोग उस प्रदर्शन पर पहुंचे यह एक रिसर्च का विषय है लेकिन अगर सोशल मीडिया की ताकत इतनी ही है तो आखिर २३ अप्रैल, २०१३ से पानी और बिजली के खिलाफ भ्रष्टाचार के खिलाफ अनशन पर बैठे अरविंद केजरीवाल का साथ देने सोशल मीडिया की दुनिया क्यों नदारद रही।
आप यह कह कर भी हमारी बात को खारिज कर सकते हैं कि राजधानी दिल्ली में १६ दिसंबर को हुआ वीभत्स कांड पूरे देश की महिलाओं की सुरक्षा और आत्मसम्मान से जुड़ा मसला थ। इसलिए महिला, पुरूष, बुजुर्ग और बच्चे सभी उसी में शामिल हुए। लेकिन अरविंद केजरीवाल तो सिर्फ दिल्ली के लिए अनशन कर रहें है और फिर वो तो अब एक राजनीतिक पॉर्टी के भी संस्थापक हो गए हैं। ऐसे में उनके राजनीतिक मोटिव में हम उनका साथ क्यों दें।
बिल्कुल, अरविंद केजरीवाल एक राजनीतिक पार्टी से जुड़े हुए हैं। पर राजनीतिक पॉर्टी बनाने के लिए उन्हें किसने मजबूर किया। क्या आप नहीं चाहते हैं कि राजनीति की असलियत जानने वाले और साफ-सुधरी छवि के लोग राजनीति में आएं। क्योंकि आप में से ही कई लोग इस बात पर बार-बार हंगामा काटते हैं कि चुनाव के दिन हम वोट देने नहीं जाएंगे। क्योंकि सभी तो भ्रष्टाचारी हैं। तो किसी को वोट देने से क्या फायदा? चलिए अब तो साफ सुधरी छवि वाले भी राजनीति में आ रहे हैं और उनको चुनिए।
चलिए वापस लौटते हैं मुद्दे पर और सोशल मीडिया की भेड़चाल वाली जनता की बात करते हैं। बात यहां पर सिर्फ अरविंद केजरीवाल के अनशन पर सोशल मीडिया के रूख ही नहीं है। बल्कि इस बात की भी है कि हमारा सोशल मीडिया वास्तव में कौन चलाता है। सोशल मीडिया में कौन का मुद्दा क्रांति का है और कौन सा मुद्दा बकवास, इसे तय करके लोगों के बीच एजेंडा कौन सेट करता है। सोशल मीडिया पर भी पसर्नल इंफ्यूलेंस थ्योरी, सेलेक्टिव एक्सपोजर और सेलेक्टिव परसेप्शन थ्योरी काम करती हैं। इस बारे में भारत के करोड़ों नहीं पता है।
सोशल मीडिया साईट पर भी ओपिनियन लीडर पैदा हो गए हैं। उनके ओपिनियन के आधार पर कई लोग अपना ओपिनियन सेट करने लगे हैं। जिस तरह से शेयर मार्किट इमोशन से चलता है, ठीक उसी तरह से सोशल नेटवर्किंग साईट को चलाया जा रहा है। सोशल मीडिया पर लोगों का दिमाग आज भी किसी पोस्ट के शेयर और लाइक पर टिका हआ है। किसी विषय की क्या अहमियत हैं, इस बात को किसी पोस्ट को कितने लाइक और शेयर मिले हैं, इससे तय किया जा रहा है । सोशल नेटवर्किंग साईट कब सोशल मार्केटिंग साईट में तब्दील हो गई। आपको पता ही नहीं चल पाया। या फिर पता चल भी गया तो आप खामोश बैठे रहे।
By- Sachin Yadav