मंगलवार, 3 अप्रैल 2012

इरफान की जुबानी
बड़ा मजेदार किस्म का सिनेमा था, जो खो गया...

यू तो दिल्ली कीं शाम धीरे-धीरे ढल रही थी लेकिन जेएनयू में ये शाम अपने शबाब में आ रही थी क्योंकि उनके बीच एक चांद ही था, जी हां वो चांद ही तो है क्योंकि वह खुद को सितारा नहीं मानता। जेएनयू के ओपेन थियेटर उस चांद को जमीं पर उतरते देखने के लिए हजारों निगाहंे बैंठी हुई थी.

माहौल में थोड़ी सी नरमी थी. मंच भी थोड़ा सूना-सूना सा लग रहा था. अचानक काला कुर्ता, काली जींस, आंखों पर काला चश्मा और गले में हरे रंग का मुफलर डाले और चेहरे पर मुस्कान लिए चांद बोले तो इरफान मंच की ओर बढ़ चले.

वहां बैठे सभी के मन में इरफान से पूछने के लिए बहुत से सवाल थे. इससे पहले की सवाल जवाब का सिलसिला शुरू होता कि इरफान जेएनयू में आने की वजह बताई] कुछ दिन पहले मुझसे अजय ब्रहमात्मज जी ने कहा था चलो जेएनयू के चक्कर लगाकर आते हैं तो मेरे दिल में भी एक ख्वाहिश हुई कि मैं जाऊंगाa अभी इतने सारे लोग खड़े हैं यहां भी वहां भी...  अचानक भीड़ से आवाज आती है कि आप भी खड़े हो जाइए। इरफान मुस्कुराए और अपने चिरपरिचत अंदाज में कहा हम तो खड़े ही है  इतना कहना था कि माहौल में खुले आसमान के नीचे लोगों की तांलियां और कहकहे गूंजने लगे। इरफान खड़े होते है और मुस्कुराते हुए कहते हैं कि अब कोई डिमांड करेगा कि सामने पड़ी हुई मेज पर खड़े हो जाओ। तो ... आ... मैं आया-आया लेकिन इतने सारे लोगों को देख कर थोड़ा बोझ भी हो रहा हूं कि इतने सारे लोग को इंटरटेन भी हो पाएंगे 

किस लिए आए हैं, खाली सूरत देखने आए हैं, किसी का कोई सवाल भी है, ऐसे कोई अजूबा है आ गया है चलो देख लेते हैं। हंसते हुए इरफान, अपने बारे में कुछ बताना शुरू करते हैं, मै एक  छोटी सी जगह की पैदाइश हूं मैने एक सपना देखा था कभी शरमा के बहुत सीक्रेट सा सपना देखा था कि सिनेमा मैं जाऊं और अपनी तरह से काम करूं। अपनी तरह काम करने की कोई परिभाषा तो नहीं होती है लेकिन बस यह था कि अपनी तरह का काम करूं और अपनी जगह बनाऊं। बात को जारी रखते हुए इरफान ने बताया कि एक महिला पत्रकार ने फोन पर इंटरव्यू लेते हुए मुझसे पूछा कि आप हमेशा ये आम आदमी क्यों करते हैं, तो मुझे खीझ इतनी हुई कि वो सामने नहीं थी पर मन तो किया कि लगाऊं एक लाफाड़ा... मैं उन्हें
 समझाना भी बोझ लगा कि वो क्या समझेगी जो ऐसा सवाल कर रही है। आम आदमी में ही तो हीरो होता है, आम आदमी में से ही तो हीरों निकलता है। हम 10-12 साल से यह कोशिश कर रहे हैं जब हासिल की थी तिग्मांशु और मैनें मिलकर। तो हम ये जो इंटरटेनमेंट की परिभाषा है उसको रिडिफाइन करने की कोशिश कर रहे हैं और हम अपनी तरह का इंटरटेनमेंट पेश करने की कोशिश कर रहे थे। इस तरह का इंटरटेनमेंट पहले रहा है, हिंदी सिनेमा में पहले जब हमारा देश आजाद हुआ था जब उम्मीदें जवान थी, सबकुछ होप फुल था और लग रहा था कि मंजिल अब करीब है। एक ऐसी दुनिया बनेगी जो सपनों की दुनिया है तब उस समय के फिल्मकारों ने उस तरह से कहानियां सुनाई हैं। गुरूदत्त हो, चाहे बिमल रॉय हो, चाहे के.असिफ हो, महबूब खान हो, राज खोसला हो, गुरू डी आनंद हो बड़ा मजेदार किस्म का सिनेमा था जो खो गया। तो हमारी भी यहीं कोशिश है कि हमारी जमीन से जुड़ी हुई कोई कहानी हो जो इंटरटेनिंग हो। वो उस सिनेमा की बात नहीं कर रहा हूं जो इमदाद के ऊपर शुरू हुआ था जिसको कहा जाता था ऑर्ट सिनेमा, पैरलर सिनेमा जिसको पढे़-लिखे लोग खूब देखते थे और तारीफ भी करते थे लेकिन उसमे अपने पैरों पर खड़े होने की ताकत नहीं थी। क्योंकि सिनेमा मैं पैसा भी बहुत शामिल होता हैं तो पैसे को वापस लाना फिल्मकार की जिम्मेदारी हो जाती है और साथ मैं अपने पैशन को जिंदा रखना और साथ में एक्सपेरीमेंट करना ये दोधारी लड़ाई लड़नी पड़ती है जो भी सिनेमा से जुड़ा है तो ये उस तरह का सिनेमा हमारे यहां से गायब हो गया तो हमारे यहां हीरो आने लग गए जो पता नहीं कहां की पैदाइश है, वो कहां पैदा हुए हैं, कहां जन्म लिया है, इस तरह की सोसायटी है कि नहीं है पर उन्होंने कैप्चर किया ऑडियंश को और उस सिनेमा का पतन हुआ।
 आई थिंक यह नया दौर है, यह तरह पीढ़ी है। नए-नए तरह के सिनेमा को देखना चाहती थी उन्हीं कि वजह है पान सिंह तोमर, कहानी, हो यह और नई तरह की फिल्में जो आई हैं जिन्होंने बिजनेस किया है सिर्फ इस जनरेशन की वजह से बिजनेस किया है। हमारे यहां की जनता भूखी है इस तरह का इंटरटेनमेंट देखने के लिए, बीच में यह टर्म उछाला जाता रहा, क्रॉस ओवर सिनेमा. क्रॉस ओवर सिनेमा एक दम बकवास है कुछ होता नहीं है क्रॉस ओवर सिनेमा वहीं है जो जमीन से जुड़ा हुआ है जो सही मायनों में लोकल हो वही क्रॉस ओवर कर सकता है उसी की एक यूनिवर्सल भाषा बन सकती है। बाहर से किसी को उठा के अंग्रेजी डॉयलॉग बोल के बाहर के कैरेक्टर को लाके डाल दे और कहें कि यह क्रॉस ओवर सिनेमा हो. यह भारत की गरीबी को उठाकर बाहर भेजना चाहे यह बोलकर कि क्रॉस ओवर है तो क्रॉस ओवर सिनेमा नहीं होता है तो आज आने वाला दौर ज्यादा इंटरस्टिंग होगा जो नई जनरेशन नई भाषा बोलेंगी जो यूनिवर्सल भी होगी और मुझे कभी
उम्मीद भी नहीं थी कि मैं खड़ा होकर माइक पर इतनी देर बोलता रहूंगा और मैं ज्यादा पसंद करूंगा कि आप के कोई सवाल हो, क्यूरोसिटी हो, दुआ देना चाहते हो या गाली देना चाहते हो...... यह कहते हुए हुए इरफान कुर्सी पर बैठ गए और सवाल खतों के रूप में उन तक पहुंचने लगे।


इरफान से पूछे गए सवाल-जवाब अगली कड़ी में...............all is well